बहाउल्लाह का जीवन

बहाई पावन लेख प्राय: एक ईश्‍वरीय अवतार के आगमन की तुलना सूर्योदय से करते हैं। ईश्‍वरीय अवतार का प्रादुर्भाव प्रत्‍येक नये दिन की शुरूआत की भाँति है, जब सूर्य की किरणें विश्‍व में ऊर्जा का संचार करती हैं, सभी वस्‍तुओं पर प्रकाश डालती हैं और रात्रि के अंधकार में जो छिपा हुआ था उसे देखने में आँख को समर्थ बनाती हैं।

सम्‍पूर्ण इतिहास में, बहाउल्‍लाह, "ईश्‍वर की महिमा" और बाब, "उनके अग्रदूत", दो दैविक संदेशवाहकों के आगमन के साथ मानवता के लिये एक नये दिन की भोर हुए है। जिस प्रकार उदित होता सूर्य सुसुप्‍त विश्‍व में जीवन की फुर्ती भरता है, इन ‘युगल ईश्‍वरीय अवतारों’ ने मानवता की, जीवन के उच्‍चतर अर्थ व उद्देश्‍य की खोज को, पुनः ऊर्जावान बनाया है। बहाउल्‍लाह की शिक्षाएं मानव के कामकाज पर उस समय प्रकाश डाल रही हैं, जब यह तर्क दिया जा सकता है कि विश्‍व में अंधेरा छा गया है। ‘उनकी’ शिक्षाएं शीघ्रता से विकसित हो रहे परिवर्तनों को समझने व उन्‍हें आगे बढ़ाने में मानवता की मदद कर रही हैं। जबकि ये परिवर्तन वस्‍तु-व्‍यवस्‍था को भंग कर देते हैं, नेताओं को भी घबरा देते हैं, वे जीवन के नये प्रतिमानों के लिये राह खोलते हैं और मानव संघटन के नये स्‍वरूप प्रकट करते हैं।

मानव इतिहास के इस अशांत काल में विश्‍व को, मानव के रूप में हमारी वास्‍तविक प्रकृति और हम जिस प्रकार की दुनिया में जीना चाहेंगे, उसके लिये एक एकीकरणीय परिकल्‍पना की आवश्‍यकता है। बहाई ये मानते हैं कि यह परिकल्‍पना बहाउल्‍लाह, जिनका जीवन और शिक्षाएं हमारे काल की सर्वाधिक अकाट्य कहानी है, के लेखों में प्रकट की गई है।

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बहाउल्‍लाह ने ईश्‍वर की ओर से नया प्रकटीकरण प्रस्‍तुत किया है। ‘उनका’ ध्‍येय मानवता को आध्‍यात्मिक रूप से पुनः जागृत और विश्‍व के सभी लोगों को एक करना था। बहाउल्‍लाह की शिक्षाएं बहाई धर्म का आधार हैं और अनन्‍त आशा व आरोग्‍य की परिकल्‍पना प्रदान करती हैं। बहाउल्‍लाह लिखते हैं, "मेरा उद्देश्‍य विश्‍व को बेहतर बनाने व इसके लोगों की शांति के अलावा और कुछ भी नहीं है।" इस उत्‍कृष्‍ट उद्देश्‍य के लिये उन्‍होंने जीवन-पर्यंत अत्‍याचार, कारागृह, उत्‍पीड़न और देश निकाला सहन किया।

बहाउल्‍लाह का जन्‍म तेहरान में, 12 नवम्‍बर 1817 को हुआ था और उनका नाम मिर्जा़ हुसैन अली रखा गया। उनके पिता मिर्जा़ बुर्जुग, फारस के राज-दरबार में एक उच्‍च पद पर थे। कम उम्र में ही बहाउल्‍लाह ने ऐसे गुण प्रदर्शित किये जिससे उनके आस-पास के लोगों को यह समझ आ गया कि वे एक साधारण बच्‍चे नहीं थे। ‘उनमें’ एक सहज विवेक और बुद्धिमत्‍ता थी, य‍द्यपि वे पाठशाला नहीं गये थे, जैसे-जैसे वे बड़े हुए, ‘उनकी’ अंतर्दृष्टि, ‘उनके’ सर्वोत्‍कृष्‍ट आचरण, ‘उनकी’ उदारता और अनुकम्‍पा के लिये प्रसिद्ध होनें लगे। 18 वर्ष की आयु में बहाउल्‍लाह का विवाह नवाब नामक युवती से हुआ और उनका घर आश्रय, प्रकाश व प्रेम के स्‍थल के रूप में सबके लिये मेहमान नवाज़ी हेतु खुल गया।

बहाउल्लाह का घर (दायें) और उसके प्रवेशद्वार की तस्वीर (बायें) ताकुर में, उत्तरी ईरान, 1981 में ईरान की सरकार द्वारा नष्ट किया गया |

22 वर्ष की आयु में जब बहाउल्‍लाह के पिता का देहांत हुआ तब उन पर घर व पारिवारिक विस्‍तृत संपत्ति की जिम्‍मेदारी आ गई। शासन ने बहाउल्‍लाह को उनके पिता का मंत्री-पद प्रस्‍तुत किया, किन्‍तु ‘उन्‍होंने’ इस प्रतिष्ठित पद को अस्‍वीकार कर दिया। पदवी व सम्‍मान में ‘उनकी’ रूचि नहीं थी। ‘उनकी’ रूचि तो गरीबों व आवश्‍यकताग्रस्‍तों को बचाने व उनकी रक्षा करने में थी। जीवन को सत्‍ता व अवकाश के लिये व्‍यतीत करने की अपेक्षा बहाउल्‍लाह ने उनकी ऊर्जा को परोपकार व सेवा के कार्य में समर्पित करना पसंद किया। 1840 के दशक के प्रारंभिक वर्षों तक ‘उन्‍हें’ "गरीबों के पिता" के रूप में जाना जाने लगा।

बाब के धर्म को स्‍वीकार करने के साथ, बहाउल्‍लाह - युवा कुलीन पुरुष एवं ‘उनके’ परिवार का जीवन सदा के लिये बदल गया। बाब शिराज़, फारस के एक युवा व्‍यापारी थे, जिन्‍होंने 1844 में यह उद्घोषणा की थी कि वे ईश्‍वर के एक नया संदेश लाये हैं और वह सभी धर्मों के लिये ‘प्रतिज्ञापित’ अग्रदूत थे। यद्यपि बहाउल्‍लाह और बाब व्‍यक्तिगत रूप से कभी नहीं मिले थे, उन्‍होंने पत्र-व्‍यवहार किया था। जिस क्षण बहाउल्‍लाह ने बाब के संदेश को सुना अपने पूर्ण हृदय से उनके धर्म में आस्‍था अभिव्‍यक्‍त की और अपनी सम्‍पूर्ण ऊर्जा उसे आगे बढ़ाने में लगा दी।

बहाउल्‍लाह का कारावास, बाब के एक समर्थक के रूप में 1852 में, फारस में, प्रारम्‍भ हुआ, उन्‍हें गिरफ्तार किया गया, उत्‍पीडि़त किया गया और तेहरान के भूमिगत तहखाने में, कुख्‍यात सियाचाल ‘’काल कोठरी’’ में डाल दिया गया। इस कैद के दौरान, कैद खाने की बदबूदार हवा, गंदगी व गहन अंधकार के बीच ‘उन्‍हें’ दिव्‍य प्रकटीकरण का प्रथम उद्दीपन प्राप्‍त हुआ। जब बहाउल्‍लाह अपने पैर कुन्‍दे में डाले बैठे थे और 100 पाउंड की लौहे की जंजीरें उनकी गर्दन के चारों ओर थी, ईश्‍वर की पावन चेतना ‘उन’ पर प्रकट हुई।

इस घटना की तुलना भूतकाल के उन महान क्षणों से की जा सकती है जब ईश्‍वर ने ‘उसके’ पूर्व के संदेशवाहकों को, ‘स्‍वयं’ को प्रकट किया था : जब मोजि़स ‘प्रज्‍ज्‍वलित झाडि़यों’ के समक्ष खड़े थे; जब बुद्ध को बोधि वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्‍त हुआ, जब पावन चेतना एक फाखता के रूप में ईसा पर अवतरित हुई थी और जब देवदूत ग्रेब्रियल मुहम्‍मद के सामने उपस्थिति हुए।

बाद में, अपने लेखों, में बहाउल्‍लाह ने ‘उन्‍हें’ प्राप्‍त होने वाले ईश्‍वरीय प्रकटीकरण के अनुभव व सार का वर्णन किया:

‘‘सर्व-‍महिमाशाली की बयार मुझ पर बह रही थी और जो कुछ भी अस्तित्‍व में था उसका ज्ञान मुझे सीखा गई। यह ‘मेरी’ ओर से नहीं है किन्‍तु ‘उसकी’ ओर से है जो सर्व-शक्तिशाली और सर्वज्ञाता है। और उसने धरती व स्‍वर्ग के मध्‍य अपनी आवाज बुलंद करने की आज्ञा दी।’’

‘‘जिन दिनों मैं तेहरान के कारागृह में था, यद्यपि जंजीरों के कष्‍टप्रद भार और बदबूदार हवा मुझे थोड़ी नींद ही लेने देते थे, फिर भी उन कभी-कभी की झपकी के क्षणों में मुझे महसूस हुआ कि कुछ मेरे सर-मुकट से मेरी छाती पर बहा, जैसेकि ऊंचे पहाड़ से कोई महान जल-धारा धरती पर वेग से नीचे गिर आई हो। परिणामस्‍वरूप मेरे शरीर के अंग-प्रत्‍यंग में अग्नि भड़क उठी। ऐसे क्षणों में मेरी जिह्वा ने वह उच्‍चरित किया जिसे कोई मनुष्‍य सुन नहीं सकता था।’’

काल कोठरी से छुटकारे के बाद, बहाउल्‍लाह को ‘उनके’ देश से निकाल दिया गया, जिसके साथ उनकी 40 वर्षों का देश निकाला प्रारम्‍भ हुआ; जो धरती पर ‘उनके’ लिये जीवन-पर्यंत रहा। उन्‍होंने सार्वजनिक रूप से अपने ईश्‍वरीय अवतार के मिशन की घोषणा 1863 में की।

बहाउल्लाह के निर्वासन
ओटोमन साम्राज्य
फ़ारस

बहाउल्‍लाह के अनुयायी बहाई के नाम से जाने, जाने लगे। उनके चुम्‍बकीय आचरण और गहन आध्‍यात्मिक शिक्षाओं से आकर्षित होकर जब इन अनुयायियों की संख्‍या बढ़ गई तब बहाउल्‍लाह को आगे देश निकाला दे दिया गया। उन्‍हें ऑटोमन साम्राज्‍य के प्राचीन शहर ‘अक्‍का’, जो आज के इजराइल में स्थित है, के कठोरतम दण्‍डनीय स्‍थान पर कैदखाने में डाल दिया गया। दूषित जलवायु, स्‍वच्‍छ पानी का अभाव और कीटों से भरी इमारतों के कारण, ‘अक्‍का’ में जीवन घोरतम संभव सजा के रूप में था। बहाउल्‍लाह वहां ‘उनके’ 70 परिवार के सदस्‍यों और अनुयायियों के साथ 1868 में पहुंचे। यहां अक्‍का में बहाउल्‍लाह ने कुछ सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण रचनाएं लिखीं, जो उनके काल के राजाओं व शासकों को संबोधित थीं, और उन विधानों व सिद्धांतों को प्रकट करती हुई जो मानवता को एक विश्‍व शांति की ओर अग्रसर करेंगी।

उन्‍होंने लिखा ‘‘सम्‍पूर्ण धरती एक देश है और मानवजाति उसके नागरिक।’’ यह उसके लिए गर्व की बात नहीं है जो अपने देश से प्रेम करता है, बल्कि उसके लिये है जो सम्‍पूर्ण विश्‍व से प्रेम करता है।’’

जब समय बीतता गया स्‍थानीय अधिकारियों ने बहाउल्‍लाह के कैदखाने की स्थिति में ढील दी और वे थोड़ी दूर उत्‍तर में बाहजी चले गये, जहां उन्‍होंने अपने जीवन के अंतिम 12 वर्ष व्‍यतीत किये। इस समय के दौरान, बहाउल्‍लाह निकट के कार्मल पर्वत के ढलान की ओर कई बार गये, जहां 1891 में उन्‍होंने अपने अग्रदूत बाब के लिये स्‍थायी समाधि का स्‍थान निर्दिष्‍ट किया।

1892 में, कुछ दिनों की बीमारी के बाद, बहाउल्‍लाह का 75 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। उनके भौतिक अवशेष को बाहजी में ‘उनके’ अन्तिम निवास के निकट एक छोटे भवन में समाधि-स्थित कर दिया गया। अपने वसीयतनामे में, ‘उन्‍होंने’ अब्‍दुल-बहा को ‘उनका’ उत्‍तराधिकारी और बहाई धर्म का प्रमुख निर्धारित किया-यह इतिहास में पहली बार था कि एक विश्‍व धर्म के संस्‍थापक ने अपने उत्‍तराधिकारी का नाम एक अखंडनीय प्रपत्र में लिखा। ‘‘बहाउल्‍लाह की संविदा’’ में यह उत्‍तराधिकारी का चयन एक केन्‍द्रीय प्रावधान है, जो बहाई समुदाय को सदा के लिये एक रहने की शक्ति देता है।

बहाउल्लाह की समाधि

बहाउल्‍लाह की शिक्षाओं का क्रियान्वयन

धर्म का नवीनीकरण

बहाउल्‍लाह का प्रकटीकरण